रविवार, 21 नवंबर 2010

राग मालकोश


रात के तीसरे पहर पूरी क़ायनात
गुनगुनाती है मालकोशी धुन
चाँद अपने सफ़र में थक कर जिस घड़ी
आसमान के सीने पर सुस्ताता है…

हम उनींदी आँखों
किसी रोज़ जो
उठ पायें नर्म बिस्तर से
तो सुन पायें ...जी जायें…


मालकोश में बाँसुरी पर आलाप -पंडित हरि प्रसाद चौरसिया


बलशाली कर दे मोरा मन
मालकोश में छोटे ख्याल की बंदिश स्वर-सुरेश वाड़कर


संक्षिप्त परिचय- राग मालकोश
थाट- भैरवी
जाति- औडव-औडव
वर्ज्य स्वर- रिषभ,पंचम
वादी स्वर- मध्यम
संवादी- षडज
कोमल स्वर- गंधार,धैवत और निषाद
न्यास के स्वर- सा,_ग,म
गायन समय- रात्रि का तीसरा प्रहर
समप्रकृति राग- चंद्रकोश
मालकोश के स्वरों में मात्र नि स्वर शुद्ध कर देने से यह राग चंद्रकोश बन जाता है ।
इसमें पंचम वर्जित होने के कारण इसे गाते समय तानपूरे के प्रथम तार को मंद्र मध्यम से मिलाते हैं ।
मालकोश गम्भीर और शांत प्रकृति का राग होने के कारण मीड़ प्रधान राग माना जाता है ।
आरोह- सा _ग म ,_ध _नि सां ।
अवरोह- सां _नि _ध म,_ग म _ग सा ।
पकड़- _ध(मंद्र) _नि(मंद्र) सा म , _ग म _ग सा ।

शनिवार, 24 अप्रैल 2010

बेग़म परवीन सुल्ताना-ठुमरी -तुम राधे बनो श्याम


ये आवाज़ - मानो नदी की कोई महीन धारा, कलकल करती, मधुर ध्वनि से आहिस्ता-आहिस्ता पहाड़ उतर रही हो.... एक तारों भरी रात
मेरी अपनी यादों में सिक्किम की हल्की, पिस्तई तीस्ता सदा हरहराती है या फिर बाणगंगा का धीमा मद्धम बहाव जो पहाड़ी की ओट होते ही कभी कानो तक आता है तो बीच -बीच एकदम से सन्नाटे में सिर्फ एक बूंद के टपकने का सा आभास भर देता है ...जो भी हो ...
आज परिभाषाएँ लिखने का मन नही .सिर्फ सुनने का दिल है .मै मुरीद हूँ । जिन्हें जुड़ाव हो वे भी सुनें -
१९५० में आसाम में जन्मी , पटियाला घराने की पद्मश्री बेग़म परवीन सुल्ताना के अद्भुत स्वरों में ये ठुमरी -
तुम राधे बनो श्याम





चित्र-गूगल साभार

बुधवार, 20 जनवरी 2010

राग बहार-विलायत खाँ साहब-पल्लवी पोटे



राग बहार का संक्षिप्त परिचय -

थाट- काफी
जाति-षाडव-षाडव
स्वर-गंधार कोमल ,दोनों निषादों का प्रयोग ,आरोह में रे ,अवरोह में ध स्वर वर्ज्य
वादी स्वर-
संवादी स्वर-सा
गायन-वादन समय -मध्य रात्रि
न्यास के स्वर- सा,म और प
सम्प्रकृति राग-मियाँ मल्हार
विशेषता -प्राचीन ग्रंथो में इस राग का उल्लेख नहीं मिलता,अत: यह माना जाता है कि इस राग की रचना मध्य काल में हुई . विद्वान बागेश्वरी ,अड़ाना और मियाँ मल्हार के मिश्रण से इस राग की रचना मानते हैं .इस राग का चलन सप्तक के उत्तर अंग तथा तार सप्तक में होने के कारण इस राग को उत्तरांग प्रधान रागों के अन्तर्गत रखा गया है . बहार राग के गीतों में बसंत ॠतु का वर्णन मिलता है . इस राग का गायन समय मध्य रात्रि है तथापि बसंत ॠतु में इसे हर समय गाया-बजाया जाता है .यह एक चंचल प्रकृति का राग है .
राग बहार
आरोह-सा म , म प ग_ म,ध नि सां ।
अवरोह-सां नि_ प,म प , ग_ म रे सा ।
पकड़-सा म , म प ग_ म , नि_ ध नि सां ।

सुनें बंदिश कलियन संग करता रंगरलियां राग बहार
स्वर-पल्लवी पोटे



एक और प्रस्तुति सितार पे उस्ताद विलायत खाँ साहब


चित्र-साभार